Monday, November 23, 2015

कुछ भी याद नहीं



बरसों पुरानी बात....
खचाखच भरी प्राइवेट बस, 
झाबुआ का माचलिया घाट 
बौराया फागुन ,
भगोरिया का मदमाता उल्लास ...
उफ़ ,
कि उत्सव को सूँघ ले कोई 
अपनी आँखें मीच कर !
कहीं से इस गीत का अंतरा लहराता हुआ आया 
और समा गया मेरे कानों में ।
उसके बाद, 
बस कब-कब रुकी 
और कब चल पड़ी 
कुछ भी याद नहीं ।
तुम जो ख़यालों से निकल कर आ बैठी थीं, 
बगल वाली सीट पर !!!


- हृषीकेश वैद्य 

तुम्हारी आँखों में उतर गया मैं





नहीं जानता 
कि क्यों, किसलिए.... 
आज ये गीत मैंने 
तुम्हारी नज़र कर दिया !
सब आस-पास ढूँढ रहे हैं 
लेकिन मैं तो 
तुम्हारी आँखों में उतर गया । 
हाँ, 
अदृश्य बनकर ही तो 
किया जाता है मासूम प्यार !!!
दुहाई में भरोसा नहीं तुम्हें 
और रुसवाई की आशंका 
पंखुड़ियों के नीचे छिपे काँटों सी 
सिर उठाती हैं अक्सर ।
पर मैं ... 
मैं तो गुज़रती साँसों को 
साक्षी बना कर 
पी लेना चाहता हूँ 
हर आने वाला लम्हा ...



- हृषीकेश वैद्य 

देखो , अतीत चला आया वर्तमान में ...




अजब थी वो उम्र भी !!!
मिट्टी की गुड़िया 
जो टुबुक टुबुक सिर हिलाती थी 
चाबी वाला बंदर 
जो डब-डब ड्रम बजाता था । 
बबूल का गोंद खाने के लिए 
अक्सर काँटों से उलझ पड़ता था ।
वो मेला ...
जो चैत्र नवरात्र में भरा करता था 
और वो तारा टूरिंग टॉकीज़
जिसके शामियाने में झाँककर 
देखा करते थे सिनेमा .....

ओह, 
देखो अतीत चला आया 
वर्तमान में !!
या ख़ुदा
फिर से लौटा ला 
बस एक बार,
विनोद खन्ना का यौवन...
उस बचपन के बदले !!!

-हृषीकेश वैद्य
  

प्रतीक्षालय में बैठा ...आखिरी यात्री



कह न सका तुमसे ... 
पर उस दिन कार में 
इसी गीत के झोंकों ने 
मेरे आँसुओं को सुखाया था 
....
अपनी हवा से !
अक्सर रात में 
जब तुम सो जाती हो 
अचानक ये गीत अनेक बन जाता है 
और भरने लगता है मेरे दिल में 
अगले दिन के लिए 
कुछ और धड़कने !!

वरना मैं क्या ?
मैं तो प्रतीक्षालय में बैठा 
वो आखिरी यात्री हूँ 
जिसे पता है 
कि उसकी ट्रेन कभी नहीं आएगी !!!

-    हृषीकेश वैद्य

देखो तो ... कुछ भी ‘ सम ’ नहीं




एक खुशनुमा दिन....
अपने पीछे,
इतनी उदास रात क्यूँ छोड़ जाता है !
वो चाय ...
जिसने कुछ देर पहले ,
मेरा मुँह जला दिया था ।
रखकर भूल गया, तो शरबत बन गयी ।
देखो तो ...
कुछ भी ‘ सम ’ नहीं
मेरी ज़िंदगी में !!!
तुमसे खफ़ा होना तो बस इक बहाना है।
दरअसल,
खफ़ा तो मैं अपनेआप से हूँ ........

-           - हृषीकेश वैद्य





Tuesday, November 10, 2015

ये उन दिनों की बात है



ये उन दिनों की बात है
जब मैं तुम्हारी राह देखा करता था ।
मानो सात – आठ साल का बच्चा कोई
हर दिन करता रहता है, होली – दिवाली का इंतज़ार। 
जाने क्यूँ लगता था
कि तुम हो...
मेरे आस-पास ही कहीं
बस धुंध नहीं छँटी है अभी।
गिटार की स्ट्रिंग जैसे जैसे झनझनाती
मेरा दिल भी वैसे ही धड़कने लगता ।
झक झक-झक, झक झक-झक !!
अरे हाँ
एक बात पर गौर ज़रूर करना ....
पुरुष-स्वर भी हो सकता है
इतना रेशमी
इतना मुलायम !!!

-    हृषीकेश वैद्य

Monday, January 12, 2015

भूला ही कब था


शाम के झुटपुटे में आँख लगी
थका हुआ नहीं था फिर भी नींद आ गयी
एक सपना देखा
उन बीते हुये दिनों का !
सपने में तुम नहीं थीं
पर तुम्हारा एहसास था
तीव्र एहसास ............
भूला ही कब था
जो फिर से याद करूँ मैं
तुम्हारी और मेरी कहानी !!!


-           - हृषीकेश वैद्य